नई दिल्ली।
अरावली पर्वतमाला को लेकर एक बार फिर गंभीर पर्यावरणीय चिंताएं सामने आई हैं। सोशल मीडिया और पर्यावरण से जुड़े कुछ विशेषज्ञों के बयानों में यह दावा किया जा रहा है कि कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को काटने की नीति के चलते अरावली की बड़ी हिस्सेदारी खतरे में आ सकती है।
बताया जा रहा है कि अरावली पर्वतमाला की लगभग 93 प्रतिशत पहाड़ियां 100 मीटर से कम ऊंचाई की हैं। मौजूदा प्रावधानों के अनुसार, यदि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां संविधान की अनुसूची-6 (Schedule-6) के अंतर्गत संरक्षित नहीं हैं, तो उनके कटाव की संभावना बढ़ जाती है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह स्थिति दुनिया की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक अरावली के लिए गंभीर खतरा बन सकती है।
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अरावली का बड़ा हिस्सा नष्ट होता है, तो इसका सीधा प्रभाव थार मरुस्थल पर पड़ेगा। आशंका जताई जा रही है कि रेगिस्तान की रेत बिना किसी प्राकृतिक अवरोध के उड़कर दिल्ली और आसपास के इलाकों तक पहुंच सकती है, जिससे क्षेत्र में पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो सकता है।
इसके साथ ही यह भी चेतावनी दी जा रही है कि थार से उड़ने वाली रेत हिमालय पर्वत क्षेत्र में जाकर जमा हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार, बर्फ पर रेत की परत जमने से बर्फ तेजी से गर्म होकर पिघल सकती है, क्योंकि रेत जल्दी गर्मी सोखती है, जबकि साफ बर्फ सूर्य की किरणों को परावर्तित कर देती है।
यदि हिमालयी क्षेत्रों में बर्फ पिघलने की प्रक्रिया तेज होती है, तो उसका पानी गंगा और यमुना नदियों के माध्यम से मैदानी इलाकों तक पहुंचेगा, जिससे भविष्य में बाढ़ जैसी स्थितियों का खतरा बढ़ सकता है, खासकर बिहार और आसपास के क्षेत्रों में।
हालांकि इन दावों को लेकर अब तक कोई आधिकारिक पुष्टि सामने नहीं आई है, लेकिन पर्यावरण से जुड़े जानकारों का कहना है कि भूगोल, पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। उनका मानना है कि यदि विकास के फैसले वैज्ञानिक और पर्यावरणीय आकलन के बिना लिए गए, तो इसके दूरगामी और गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
